Birthday Special : अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो!, गुलजार यांच्या १० खास कविता!

By ऑनलाइन लोकमत | Published: August 18, 2018 11:03 AM2018-08-18T11:03:56+5:302018-08-18T11:13:09+5:30

गीतकार गुलजार यांनी कितीतरी सिनेमांसाठी गाणी लिहिली असली तरी त्यांच्या नज्म आणि कविताही तितक्याच लोकप्रिय आहेत. त्यांच्या कवितांमध्ये प्रेमासोबतच जीवन, जगणं, दु:खं असं खूपकाही मनाला दिलासा देऊन जातं.

Birthday Special : 10 special poems of Gulzar | Birthday Special : अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो!, गुलजार यांच्या १० खास कविता!

Birthday Special : अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो!, गुलजार यांच्या १० खास कविता!

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गीतकार गुलजार यांनी कितीतरी सिनेमांसाठी गाणी लिहिली असली तरी त्यांच्या नज्म आणि कविताही तितक्याच लोकप्रिय आहेत. त्यांच्या कवितांमध्ये प्रेमासोबतच जीवन, जगणं, दु:खं असं खूपकाही मनाला दिलासा देऊन जातं. आज त्यांच्या वाढदिवस त्यानिमित्त त्यांच्या काही खास कविता वाचूयात...

बोलिये सुरीली बोलियां,
खट्टी मीठी आँखों की रसीली बोलियां.
रात में घोले चाँद की मिश्री,
दिन के ग़म नमकीन लगते हैं.
नमकीन आँखों की नशीली बोलियां,
गूंज रहे हैं डूबते साए.
शाम की खुशबू हाथ ना आए,
गूंजती आँखों की नशीली बोलियां.

देखो, आहिस्ता चलो!
देखो, आहिस्ता चलो, और भी आहिस्ता ज़रा,
देखना, सोच-सँभल कर ज़रा पाँव रखना,
ज़ोर से बज न उठे पैरों की आवाज़ कहीं.
काँच के ख़्वाब हैं बिखरे हुए तन्हाई में,
ख़्वाब टूटे न कोई, जाग न जाये देखो,
जाग जायेगा कोई ख़्वाब तो मर जाएगा.


किताबें!
किताबें झाँकती हैं बंद आलमारी के शीशों से,
बड़ी हसरत से तकती हैं.
महीनों अब मुलाकातें नहीं होतीं,
जो शामें इन की सोहबत में कटा करती थीं.
अब अक्सर .......
गुज़र जाती हैं 'कम्प्यूटर' के पदों पर.
बड़ी बेचैन रहती हैं किताबें ....
इन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई है
बड़ी हसरत से तकती हैं,
जो क़दरें वो सुनाती थीं,
कि जिनके 'सेल' कभी मरते नहीं थे,
वो क़दरें अब नज़र आतीं नहीं घर में,
जो रिश्ते वो सुनाती थीं.
वह सारे उधड़े-उधड़े हैं,
कोई सफ़ा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है,
कई लफ़्ज़ों के मानी गिर पड़े हैं.
बिना पत्तों के सूखे ठूँठ लगते हैं वो सब अल्फ़ाज़,
जिन पर अब कोई मानी नहीं उगते,
बहुत-सी इस्तलाहें हैं,
जो मिट्टी के सकोरों की तरह बिखरी पड़ी हैं,
गिलासों ने उन्हें मतरूक कर डाला.
ज़ुबान पर ज़ायका आता था जो सफ्हे पलटने का,
अब ऊँगली 'क्लिक' करने से बस इक,
झपकी गुज़रती है,
बहुत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर,
किताबों से जो ज़ाती राब्ता था, कट गया है.
कभी सीने पे रख के लेट जाते थे,
कभी गोदी में लेते थे,
कभी घुटनों को अपने रिहल की सूरत बना कर.
नीम-सजदे में पढ़ा करते थे, छूते थे जबीं से,
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइन्दा भी.
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल,
और महके हुए रुक्क़े,
किताबें माँगने, गिरने, उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे,
उनका क्या होगा ?
वो शायद अब नहीं होंगे !

ख़ुदा
पूरे का पूरा आकाश घुमा कर बाज़ी देखी मैंने
काले घर में सूरज रख के,
तुमने शायद सोचा था, मेरे सब मोहरे पिट जायेंगे,
मैंने एक चिराग़ जला कर,
अपना रस्ता खोल लिया.
तुमने एक समन्दर हाथ में ले कर, मुझ पर ठेल दिया.
मैंने नूह की कश्ती उसके ऊपर रख दी,
काल चला तुमने और मेरी जानिब देखा,
मैंने काल को तोड़ क़े लम्हा-लम्हा जीना सीख लिया.
मेरी ख़ुदी को तुमने चन्द चमत्कारों से मारना चाहा,
मेरे इक प्यादे ने तेरा चाँद का मोहरा मार लिया
मौत की शह दे कर तुमने समझा अब तो मात हुई,
मैंने जिस्म का ख़ोल उतार क़े सौंप दिया,
और रूह बचा ली,
पूरे-का-पूरा आकाश घुमा कर अब तुम देखो बाज़ी.

इक इमारत
है सराय शायद,
जो मेरे सर में बसी है.
सीढ़ियाँ चढ़ते-उतरते हुए जूतों की धमक,
बजती है सर में.
कोनों-खुदरों में खड़े लोगों की सरगोशियाँ,
सुनता हूँ कभी.
साज़िशें, पहने हुए काले लबादे सर तक,
उड़ती हैं, भूतिया महलों में उड़ा करती हैं
चमगादड़ें जैसे.
इक महल है शायद !
साज़ के तार चटख़ते हैं नसों में
कोई खोल के आँखें,
पत्तियाँ पलकों की झपकाके बुलाता है किसी को !
चूल्हे जलते हैं तो महकी हुई 'गन्दुम' के धुएँ में,
खिड़कियाँ खोल के कुछ चेहरे मुझे देखते हैं !
और सुनते हैं जो मैं सोचता हूँ !
एक, मिट्टी का घर है
इक गली है, जो फ़क़त घूमती ही रहती है
शहर है कोई, मेरे सर में बसा है शायद !

अमलतास
खिड़की पिछवाड़े को खुलती तो नज़र आता था,
वो अमलतास का इक पेड़, ज़रा दूर, अकेला-सा खड़ा था,
शाखें पंखों की तरह खोले हुए.
एक परिन्दे की तरह,
बरगलाते थे उसे रोज़ परिन्दे आकर,
सब सुनाते थे वि परवाज़ के क़िस्से उसको,
और दिखाते थे उसे उड़ के, क़लाबाज़ियाँ खा के,
बदलियाँ छू के बताते थे, मज़े ठंडी हवा के!
आंधी का हाथ पकड़ कर शायद.
उसने कल उड़ने की कोशिश की थी,
औंधे मुँह बीच-सड़क आके गिरा है!!

वक़्त को आते न जाते न गुजरते देखा,
न उतरते हुए देखा कभी इलहाम की सूरत,
जमा होते हुए एक जगह मगर देखा है.
शायद आया था वो ख़्वाब से दबे पांव ही,
और जब आया ख़्यालों को एहसास न था.
आँख का रंग तुलु होते हुए देखा जिस दिन,
मैंने चूमा था मगर वक़्त को पहचाना न था.
चंद तुतलाते हुए बोलों में आहट सुनी,
दूध का दांत गिरा था तो भी वहां देखा,
बोस्की बेटी मेरी ,चिकनी-सी रेशम की डली,
लिपटी लिपटाई हुई रेशम के तागों में पड़ी थी.
मुझे एहसास ही नहीं था कि वहां वक़्त पड़ा है.
पालना खोल के जब मैंने उतारा था उसे बिस्तर पर,
लोरी के बोलों से एक बार छुआ था उसको,
बढ़ते नाखूनों में हर बार तराशा भी था.
चूड़ियाँ चढ़ती-उतरती थीं कलाई पे मुसलसल,
और हाथों से उतरती कभी चढ़ती थी किताबें,
मुझको मालूम नहीं था कि वहां वक़्त लिखा है.
वक़्त को आते न जाते न गुज़रते देखा,
जमा होते हुए देखा मगर उसको मैंने,
इस बरस बोस्की अठारह बरस की होगी.


मेरे रौशनदार में बैठा एक कबूतर
जब अपनी मादा से गुटरगूँ कहता है
लगता है मेरे बारे में, उसने कोई बात कहीं.
शायद मेरा यूँ कमरे में आना और मुख़ल होना
उनको नावाजिब लगता है.
उनका घर है रौशनदान में
और मैं एक पड़ोसी हूँ
उनके सामने एक वसी आकाश का आंगन.
हम दरवाज़े भेड़ के, इन दरबों में बन्द हो जाते हैं,
उनके पर हैं, और परवाज़ ही खसलत है.
आठवीं, दसवीं मंज़िल के छज्जों पर वो,
बेख़ौफ़ टहलते रहते हैं.
हम भारी-भरकम, एक क़दम आगे रक्खा,
और नीचे गिर के फौत हुए.
बोले गुटरगूँ...
कितना वज़न लेकर चलते हैं ये इन्सान
कौन सी शै है इसके पास जो इतराता है
ये भी नहीं कि दो गज़ की परवाज़ करें.
आँखें बन्द करता हूँ तो माथे के रौशनदान से अक्सर
मुझको गुटरगूँ की आवाज़ें आती हैं !!

अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो , कि दास्तां आगे और भी है!
अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो!
अभी तो टूटी है कच्ची मिट्टी, अभी तो बस जिस्म ही गिरे हैं
अभी तो किरदार ही बुझे हैं.
अभी सुलगते हैं रूह के ग़म, अभी धड़कते हैं दर्द दिल के
अभी तो एहसास जी रहा है.
यह लौ बचा लो जो थक के किरदार की हथेली से गिर पड़ी है.
यह लौ बचा लो यहीं से उठेगी जुस्तजू फिर बगूला बनकर,
यहीं से उठेगा कोई किरदार फिर इसी रोशनी को लेकर,
कहीं तो अंजाम-ओ-जुस्तजू के सिरे मिलेंगे,
अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो!


मौत तू एक कविता है!
मौत तू एक कविता है.
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको,
डूबती नब्ज़ों में जब दर्द को नींद आने लगे
ज़र्द सा चेहरा लिये जब चांद उफक तक पहुँचे
दिन अभी पानी में हो, रात किनारे के करीब
ना अंधेरा ना उजाला हो, ना अभी रात ना दिन
जिस्म जब ख़त्म हो और रूह को जब साँस आए
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको.

Web Title: Birthday Special : 10 special poems of Gulzar

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